भारत का इतिहास कुंभ मेले की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहरों से समृद्ध है। यह आयोजन न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसमें भारत की आजादी की लड़ाई के कई अनकहे अध्याय भी छुपे हुए हैं। कुंभ के दौरान साधु-संतों ने जहां धर्म का प्रचार किया, वहीं देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी।
1858: कुंभ और रानी लक्ष्मीबाई
1858 में प्रयागराज में कुंभ का आयोजन हुआ। यह वही समय था जब 1857 की क्रांति की लपटें पूरे देश में फैली हुई थीं। अंग्रेज इस क्रांति से बुरी तरह भयभीत थे। साधु-संतों के वेश में क्रांतिकारी कुंभ में घूम रहे थे। अंग्रेजों ने कुंभ को नियंत्रित करने के लिए संगम क्षेत्र की जमीन पर कब्जा कर लिया और ट्रेन-बस की टिकटों पर रोक लगा दी, ताकि लोग कुंभ में न आ सकें।
रानी लक्ष्मीबाई भी उस समय क्रांतिकारी साधुओं की सहायता के लिए प्रयागराज आई थीं। वह एक पंडे के घर रुकी थीं, लेकिन अंग्रेजों ने यह पता लगाकर पंडे को फांसी पर लटका दिया। रानी वहां से ग्वालियर लौटीं, जहां अंग्रेजों से लड़ते हुए वह गंभीर रूप से घायल हो गईं। उनके वफादार सैनिक उन्हें संत गंगादास के आश्रम लेकर आए।
नागा साधुओं का बलिदान
गंगादास और उनके नागा साधुओं ने रानी लक्ष्मीबाई के अंतिम संस्कार के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। नागा साधुओं ने तलवार, भाले और यहां तक कि तोप से भी अंग्रेजों का सामना किया। इस वीर संघर्ष में 745 नागा साधु शहीद हुए। उनका बलिदान आज भी याद किया जाता है।
क्रांति की नींव: रोटियां और कमल के फूल
1855 में हरिद्वार कुंभ में क्रांति की योजना बनाई गई। क्रांतिकारियों ने कमल के फूल और रोटियां बांटकर देशभर में आजादी का संदेश फैलाया। साधु-संत कथाओं और प्रवचनों के जरिए लोगों को इस आंदोलन से जोड़ रहे थे।
महात्मा गांधी और कुंभ
महात्मा गांधी ने भी कुंभ की शक्ति को पहचाना। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद वे हरिद्वार कुंभ में शामिल हुए। गांधी ने वहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ को देखकर महसूस किया कि इस आस्था को आजादी के आंदोलन से जोड़ा जा सकता है। इसके बाद उन्होंने 1918 के प्रयागराज कुंभ में भी गुप्त रूप से हिस्सा लिया। गांधी ने बाद में स्वीकार किया कि कुंभ ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा देने की प्रेरणा दी।
अंग्रेजों का कुंभ से डर
अंग्रेज कुंभ में जुटने वाली विशाल भीड़ से हमेशा डरे रहते थे। 1858 के कुंभ में उन्होंने मेला नहीं लगने दिया, केवल परंपरा निभाई गई। 1942 के कुंभ में, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था, अंग्रेजों ने कहा कि जापान कुंभ पर बम गिरा सकता है। इसके बहाने उन्होंने रेल-बस टिकटों पर रोक लगा दी। बावजूद इसके लाखों लोग कुंभ में पहुंचे।
कुंभ: बलिदान और आस्था का प्रतीक
हर साल प्रयागराज के कुंभ में बाबा गंगादास के आश्रम में नागा साधुओं को श्रद्धांजलि दी जाती है। उनके शस्त्रों की पूजा की जाती है। यह परंपरा बलिदान और आस्था के अद्भुत संगम को दर्शाती है।
कुंभ मेला न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का भी प्रतीक है। साधु-संतों और क्रांतिकारियों का बलिदान इसे ऐतिहासिक रूप से और भी महत्वपूर्ण बनाता है। कुंभ की यह गाथा हमें प्रेरित करती है कि आस्था और राष्ट्रभक्ति साथ मिलकर किसी भी लड़ाई को जीत सकते हैं।